वह शब्द ही बुनता था
शब्द सिलता था
शब्दों के ही पैबंद जोड़ता था
पर जब शब्द बाजीगरी करने वालो के बीच घिरा तो
शब्द असहाय हो गए
शब्दों के साये उसका पीछा करते रहे
शब्द दैत्याकार हो गए
सोने की उस हिरन की तरह
जिस मृगतृष्णा से राम भी नहीं बच सके
सीताओं के अपहरण ,यूँ ही नहीं हुआ करते
हर अपहरण के पीछे एक तृष्णा जरुर होती है .
Saturday, January 9, 2010
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